१९६५ का भारत-पाक युद्ध

१९६५ का भारत-पाक युद्ध उन मुठभेड़ों का नाम है जो दोनों देशों के बीच अप्रैल १९६५ से सितम्बर १९६५ के बीच हुई थी। इसे कश्मीर के दूसरे युद्ध के नाम से भी जाना जाता है। भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू और कश्मीर राज्य पर अधिकार के लिये बँटवारे के समय से ही विवाद चल रहा है। १९४७ में भारत-पाकिस्तान के बीच प्रथम युद्ध भी कश्मीर के लिये ही हुआ था। इस लड़ाई की शुरूआत पाकिस्तान ने अपने सैनिकों को घुसपैठियों के रूप में भेज कर इस उम्मीद में की थी कि कश्मीर की जनता भारत के खिलाफ विद्रोह कर देगी इस अभियान का नाम पाकिस्तान ने युद्धभियान जिब्राल्टर रखा था। पांच महीने तक चलने वाले इस युद्ध में दोनों पक्षों के हजारों लोग मारे गये। इस युद्ध का अंत संयुक्त राष्ट्र के द्वारा युद्ध विराम की घोषणा के साथ हुआ और ताशकंद में दोनों पक्षों में समझौता हुआ।
इस लड़ाई का अधिकांश हिस्सा दोनों पक्षों की थल सेना ने लड़ा। कारगिल युद्ध के पहले कश्मीर के विषय में कभी इतना बड़ा सैनिक जमावड़ा नहीं हुआ था। युद्ध में पैदल और बख्तरबंद टुकड़ियों ने वायुसेना की मदद से अनेक अभियानों में हिस्सा लिया। दोनो पक्षो के बीच हुए अनेक युद्धों की तरह इस युद्ध की अनेक जानकारियां दोनों पक्षों ने सार्वजनिक नहीं की है।
भारत और पाकिस्तान के १९४७ में हुए बटवारे के समय से ही भारत और पाकिस्तान के बीच कई मुद्दो पर तनातनी चल रही थी हालांकि जम्मू और कश्मीर का मुद्दा इसमे सबसे बड़ा था पर अन्य सीमा विवाद भी थे इनमे सबसे प्रमुख कच्छ का रण, जो कि एक बंजर इलाका है, के बटवारे पर था। २० मार्च १९६५ में पाकिस्तान के द्वारा जानबूझ कर कच्छ के रण में झडपें शुरू कर दी गयी। शुरू में इनमे केवल सीमा सुरक्षा बल ही शामिल थे पर बाद में दोनो देशों की सेना भी युद्ध में शामिल हो गयी १ जून १९६५ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री हैरोल्ड विल्सन ने दोनो पक्षो के बीच लड़ाई रुकवा कर इस विवाद को हल करने के लिये एक निष्पक्ष मध्यस्थ न्यायालय की स्थापना कर दी। इस न्यायालय ने (जिसका निर्णय तो बाद में १९६८ में आया पर रुख पहले ही स्पष्ट हो चुका था) कच्छ के रन की करीब ९०० वर्ग किलोमीटर जगह पाकिस्तान को दे दी। हालांकि पाकिस्तान का दावा ३५०० वर्ग किलोमीटर पर था।
कच्छ के रन में मिली सफलता से उत्साहित पाकिस्तान के राजनेताओं खासकर तत्कालीन विदेशमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो ने राष्ट्र्पति और सेनाध्यक्ष जनरल अयूब खान पर दबाव डाला कि वे कश्मीर पर हमले का आदेश दे। भारत उस समय चीन से युद्ध हार चुका था और उनका मानना था कि भारत उस समय युद्ध करने की स्थिति में नहीं था। इसके अलावा भुट्टो और उनके विचार से सहमत अन्य जनरलो याह्या खान और टिक्का खान का यह भी मानना था कि कश्मीर की जनता भारत से आजाद होकर पाकिस्तान से विलय की इच्छुक है और सैनिको को घुसपैठियों के वेश में भेजने पर उनके समर्थन में विद्रोह कर देगी। आखिर जनरल अयूब खान दबाव में आ गये और उन्होने गुप्त सैनिक अभियान ऑपरेशन जिब्राल्टर का आदेश दे दिया। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य कश्मीर की जनता में विद्रोह भड़काना और भारतीय संचारतंत्र एवं परिवहन व्यवस्था को नुकसान पहुचाना था। पाकिस्तान के घुसपैठियों को जल्दी ही पहचान लिया गया और विद्रोह करने के बजाय जनता ने उनकी सूचना भारतीय सैनिकों को दे दी और यह अभियान पूर्णतः विफल हो गया था।
५ अगस्त १९६५ को २६००० से ३०००० के बीच पाकिस्तानी सैनिकों ने कश्मीर की स्थानीय आबादी की वेषभूषा में नियंत्रण रेखा को पार कर भारतीय कश्मीर में प्रवेश कर लिया। भारतीय सेना ने स्थानीय आबादी से इसकी सूचना पाकर १५ अगस्त को नियंत्रण रेखा को पार किया।
सेनाध्यक्ष पाकिस्तान, जनरल मुहम्मद मूसा खान कब्जे मे लिये गये भारतीय क्षेत्र खेमकरण के रेल भवन मे भारत
शुरुआत में भारतीय सेना को अच्छी सफलता मिली। उसने तोपखाने की मदद से तीन महत्वपूर्ण पहाड़ी ठिकानो पर कब्जा जमा लिया। पाकिस्तान ने टिथवाल, उरी और पुंछ क्षेत्रों में महत्वपूर्ण बढत कर ली पर १८ अगस्त को पाकिस्तानी अभियान की ताकत में काफी कमी आ गयी थी। भारतीय अतिरिक्त टुकड़िया लाने में सफल हो गये और भारत ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में ८ किलोमीटर अंदर घुस कर हाजी पीर पर कब्जा कर लिया। इस कब्जे से पाकिस्तान सकते में आ गया। अभियान जिब्राल्टर के घुसपैठिये सनिकों का रास्ता भारतीयों के कब्जे में आ गया था और अभियान विफल हो गया। यही नहीं, पाकिस्तान की कमान को लगने लगा कि पाकिस्तानी कश्मीर का महत्वपूर्ण शहर मुजफ्फराबाद अब भारतीयो के कब्जे में जाने ही वाला है। मुजफ्फराबाद पर दबाव कम करने के लिये पाकिस्तान ने एक नया अभियान ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम शुरू किया।

१ सितम्बर १९६५ को पाकिस्तान ने ग्रैंड स्लैम नामक एक अभियान के तहत सामरिक द्रुष्टी से महत्वपूर्ण शहर अखनूर जम्मू और कश्मीरपर कब्जे के लिये आक्रमण कर दिया। इस अभियान का उद्देश्य कश्मीर घाटी का शेष भारत से संपर्क तोड था ताकि उसकी रसद और संचार वय्वस्था भंग कर दी जाय। पाकिस्तान के इस आक्रमण के लिये भारत तैयार नहीं था और पाकिस्तान को भारी संख्या में सैनिको और बेहतर किस्म के टैंको का लाभ मिल रहा था। शुरूवात में भारत को भारी क्षती उठानी पड़ी इस पर भारतीय सेना ने हवाई हमले का उपयोग किया इसके जवाब में पाकिस्तान ने पंजाब और श्रीनगर के हवाई ठिकानो पर हमला कर दिया। युद्ध के इस चरण में पाकिस्तान अत्यधिक बेहतर स्थिती में था और इस अप्रत्याशित हमले से भारतीय खेमे में घबराहट फैल गयी थी। अखनूर के पाकिस्तानी सेना के हाथ में जाने से भारत के लिये कश्मीर घाटी मे हार का खतरा पैदा हो सकता था। ग्रैंड स्लैम के विफल होने की दो वजहे थी सबसे पहली और बड़ी वजह यह थी कि पाकिस्तान की सैनिक कमान ने जीत के मुहाने में पर अपने सैनिक कमांडर को बदल दिया ऐसे में पाकिस्तानी सेना को आगे बढने में एक दिन की देरी हो गयी और उन २४ घंटो में भारत को अखनूर की रक्षा के लिये अतिरिक्त सैनिक और सामान लाने का मौका मिल गया खुद भारर्तीय सेना के स्थानीय कमांडर भौचक्के थे कि पाकिस्तान इतनी आसान जीत क्यों छोड़ रहा है। एक दिन की देरी के बावजूद भारत के पश्चिमी कमान के सेना प्रमुख यह जानते थे कि पाकिस्तान बहुत बेहतर स्थिती में है और उसको रोकने के लिये उन्होने यह प्रस्ताव तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल चौधरी को दिया कि पंजाब सीमा में एक नया मोर्चा खोल कर लाहौर पर हमला कर दिया जाय। जनरल चौधरी इस बात से सहमत नहीं थे लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शाष्त्री ने उनकी बात अनसुनी कर इस हमले का आदेश दे दिया।

भारत ने ६ सितम्बर को अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा को पार कर पश्चिमी मोर्चे पर हमला कर युद्ध की आधिकारिक शुरूवात कर दी। ६ सितम्बर को भारत की १५वी पैदल सैन्य इकाई ने द्वितीय विश्व युद्ध के अनुभवी मेजर जनरल प्रसाद के नेत्रत्व में इच्छोगिल नहर के पश्चिमी किनारे में पाकिस्तान के बड़े हमले का सामना किया। इच्छोगिल नहर भारत और पाकिस्तान की वास्तविक सीमा थी। इस हमले में खुद मेजर जनरल प्रसाद के काफिले पर भी हमला हुआ और उन्हे अपना वाहन छोड़ कर भागना पड़ा। भारत ने प्रतिआअक्रमण में बरकी गांव के समीप नहर को पार करने में सफलता अर्जित कर ली। इससे भारतीय सेना लाहौर के हवाई अडडे पर हमला करने की सीमा में पहुच गयी इसके परिणामस्वरूप अमेरिका ने अपने नागरिकों को लाहौर से निकालने के लिये कुछ समय के लिये युद्धविराम की अपील की। इसी बीच पाकिस्तान ने लाहौर पर दबाव को कम करने के लिये खेमकरण पर हमला कर उस पर कब्जा कर लिया बदले में भारत ने बेदियां और उसके आस पास के गावों पर हमला कर दिया।
६ सितम्बर को लाहौर पर हमले में भारतीय सेना के प्रथम पैदल सैन्य खन्ड (इनफैंट्री डिविजन) के साथ द्वितीय बख्तरबंद उपखन्ड (ब्रिगेड) के तीन टैंक दस्ते शामिल थे। वे तुरंत ही सीमा पार करके इच्छोगिल नहर पहुच गये पाकिस्तानी सेना ने पुलियाओं पर रक्षा दस्ते तैनात कर दिये जिन पुलो को बचाया नहीं जा सकता था उनको उड़ा दिया गया पाकिस्तान के इस कदम से भारतीय सेना का आगे बढना रुक गया। जाट रेजीमेंट की एक इकाई 3 जाट ने नहर पार करके डोगराई और बातापोर पर कब्जा कर लिया। उसी दिन पाकिस्तानी सेना ने बख्तरबंद इकाई और वायुसेना की मदद से भारतीय सेना की १५वे खन्ड पर बड़ा प्रतिआक्रमण किया हालाकि इससे ३ जाट को मामूली नुकसान ही हुआ लेकिन १५वे खन्ड को पीछे हटना पड़ा और उसके रसद और हथियारो के वाहनो को काफी क्षती पहुची। भारतीय सेना के बड़े अधिकारियो को जमीनी हालात की सही जानकारी नहीं थी अतः उन्होने इस आशंका से कि ३ जाट को भी भारी नुकसान हुआ है उसे पीछे हटने का आदेश दे दिया इससे ३ जाट के कमान आधिकारी को बड़ी निराशा हुई और बाद में उन्हे डोगराई पर फिर कब्जा करने के लिये बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।

८ दिसम्बर १९६५ को ५ मराठा लाईट इनफ़ैन्ट्री का एक दस्ता रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण कस्बे मुनाबाव में तैनात राजस्थान सैन्य बल कॊ मजबूती प्रदान करने के लिये भेजा गया। उनको पाकिस्तानी सेना के पैदल द्स्ते को आगे बढने से रोकने का आदेश मिला था पर वे केवल अपनी चौकी की रक्षा ही कर पाये पाकिस्तानी सेना के तोपखाने से हुई भारी बमबारी और हवाई और पैदल सैन्य आक्रमण के बीच ५ मराठा के जवानो ने बड़ी वीरता का परिचय दिया परिणाम स्वरूप आज उस चौकी कॊ मराठा हिल के नाम से जाना जाता है। ५ मराठा की मदद के लिये भेजे गये ३ गुरखा और ९५४ भारी तोपखाना का दस्ता पाकिस्तानी वायु सेना के भारी हमले के कारण पहुच नहीं पाया और रसद ले कर बारमेर से आ रही ट्रैन भी गर्दा रोड रेल अड्डे के पास हमले का शिकार हो गयी १० सितम्बर को मुनाबाओ पर पाकिस्तान का कब्जा हो गया।
९ सितम्बर के बाद की घटनाओं ने दोनो देशों की सेनाओ के सबसे गर्वित खन्डो का दंभ चूर चूर कर दिया। भारत के १ बख्तरबंद खन्ड जिसे भारतीय सेना की शान कहा जाता था ने सियालकोट की दिशा में हमला कर दिया। छाविंडा में पाकिस्तान की अपेक्षाकृत कमजोर ६ बख्तरबंद खन्ड ने बुरी तरह हरा दिया भारतीय सेना को करीब करीब १०० टैंक गवाने पड़े और पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा। इससे उत्साहित होकर पाकिस्तान की सेना ने भारतीयों पर प्रतिआक्रमण कर दिया और भारतीय सीमा में आगे घुस आयी। अपने अंतिम आक्रामक के लिये पाकिस्तान अपने पहला बख़्तरबंद डिवीजन और 11वाँ इन्फैन्ट्री डिवीजन के साथ अमृतसर पर कब्जे के इरादे से खेमकरण पर हमला कर दिया। उनके अनुसार अमृतसर के बाद जालंधर और फिर राष्ट्रपति अयूब खान की तरफ से आये बयान के अनुसार दिल्ली अगला लक्ष्य होता। पाकिस्तानी सेना खेमकरण से आगे बढती ही कि असल उत्तर गाँव के पास भारत का चौथा माउंटेन डिवीजन, 7 माउंटेन ब्रिगेड, 62 माउंटेन ब्रिगेड, शेरमेन टैंक से सुसज्जित डेक्कन हॉर्स, अपने अन्य डिवीजन के साथ युद्ध के लिये खडा था। और यहाँ इन दोनों के बीच दुसरें विश्वयुध्द के बाद सबसे बड़ी टैंक की लड़ाई लड़ी गई, जिसमें पाकिस्तान कि जबरदस्त हार हुई। उसनें अपने 97 टैंक खो दिये, जिसमें 72 पैटन टैंक शामिल थे; इसके अलावा 32 टैंक चलती हालत में कब्जा कर लिया गया। जहाँ इससे पहले आगे चल रही पाकिस्तानी सेना असल उत्तर के युध्द में हारने से भारत के पक्ष में युद्ध का संतुलन झुक गया। इसके बाद यह जगह अमेरिका में बने पैटन नाम के पाकिस्तानी टैंको के ऊपर पैटन नगर के नाम से जाना जाने लगा। इस लड़ाई के बाद पाकिस्तान की पहली बख्तरबंद डिवीजन को वापस सियालकोट भेज दिया गया जहाँ फिर उसने युद्ध में आगे भाग नहीं लिया।
इस समय तक युद्ध में ठहराव आ गया था और दोनो देश अपने द्वारा जीते हुए इलाको की रक्षा में ज्यादा ध्यान दे रहे थे। लड़ाई में भारतीय सेना के ३००० और पाकिस्तानी सेना के ३८०० जवान शहीद हो चुके थे। भारत ने युद्ध में ७१० वर्ग किलोमीटर इलाके में और पाकिस्तान ने २१० वर्ग किलोमीटर इलाके में कब्जा कर लिया था। भारत के क्ब्जे में सियालकोट, लाहौर और कश्मीर के उपजाऊ इलाके थे, जबकि पाकिस्तान के कब्जे में सिंध और छंब के बंजर इलाके थे।

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