ख़ालिस्तान (मतलब: “ख़ालसे की सरज़मीन”) भारत के पंजाब राज्य के सिख अलगाववादीयों द्वारा प्रस्तावित राष्ट्र को दिया गया नाम है। ख़ालिस्तान के क्षेत्रीय दावे में मौजूदा भारतीय राज्य पंजाब, चण्डीगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और इसके इलावा राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड इत्यादि राज्यों के भी कुछ क्षेत्र शामिल है। ख़ालिस्तानी अलगाववादीयों ने 29 अप्रैल 1986 को भारत से अपनी एकतरफ़ा आज़ादी की घोषणा की और 1993 में ख़ालिस्तान UNPO का सदस्य बना। 1980 और 1990 के दशक में ख़ालिस्तान आंदोलन अपने चरम पर था, बाद में 1995 तक भारत सरकार ने इस आंदोलन को दबा दिया। ब्रिटिश साम्राज्य के पतन के बाद एक अलग सिख राष्ट्र की मांग शुरू हुई। 1940 मेें ख़ालिस्तान का जिक्र पहली बार “ख़ालिस्तान” नामक एक पुस्तिका में किया गया। 1947 के बाद प्रवासी सिखों के वित्तीय और राजनीतिक समर्थन तथा पाकिस्तान की ISI के समर्थन से ख़ालिस्तान आंंदोलन भारतीय राज्य पंजाब में फला-फूूूूला और 1980 के दशक तक यह आंदोलन अपने चरम पर पहुंच गया। जगजीत सिंह चौहान के अनुसार 1971 के भारत-पाकिस्तान युुद्ध के बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुुल्फिकार अली भुट्टों ने जगजीत सिंह चौहान के साथ अपनी बातचीत के दौरान, ख़ालिस्तान बनाने में मदद का प्रस्ताव रखा था।
1984 के दशक में उग्रवाद की शुरुआत हुई जो 1995 तक चला इस उग्रवाद को कुचलने के लिए भारत सरकार और सेना ने ऑपरेशन ब्लू स्टार, ऑपरेशन वुड रोज़, ऑपरेशन ब्लैक थंडर 1 तथा ऑपरेशन ब्लैक थंडर 2 चलाए इन कार्यवाहीयों से उग्रवाद तो बहुत हद तक ख़त्म हो गया पर इसमें कई आम नागरिकों की जान गईं तथा भारतीय सेना पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगे। भारी पुलिस एवं सैन्य कार्रवाई तथा एक बड़ी सिख आबादी का इस आंदोलन से मोहभंग होने के कारण 1990 तक यह आंदोलन कमज़ोर पड़ने लगा जिसके कारण यह आंदोलन अपने उद्देश्य तक पहुँचने में विफल रहा।
ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान मारे गए आम लोगों के विरोध में कुछ भारतीय सिख और प्रवासी सिख आज भी ख़ालिस्तान का समर्थन करते है। 2018 की शुरुआत में, कुछ उग्रवादीयों को पंजाब पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। पंजाब के पुर्व मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह ने दावा किया था कि हालिया चरमपंथ को पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) और अमरीका, कनाडा और यूके के “ख़ालिस्तानी अलगाववादीयों” से समर्थन प्राप्त है। कांग्रेस ने हवा दी फिर उसी ने खत्म किया… भिंडरावाले के उदय से अंत की कहानी आपके रोंगटे खड़े कर देगी पंजाब के हालात फिर बिगड़ गए हैं। अमृतपाल सिंह को जरनैल सिंह भिंडरावाले का दूसरा वर्जन बताया जा रहा है। दोनों के बीच एक जैसी बातें तलाशी जा रही हैं। किसान परिवार में जन्मे भिंडरावाले के बारे में दो अलग-अलग पहलू हैं। पंजाब के कई लोग भिंडरावाले को ‘संत’ का दर्जा देते हैं। एक वर्ग उसे सिख पंथ का हीरो मानता है। पंजाब में भिंडरावाले की तस्वीर वाली टी-शर्ट्स आम हैं। अकाल तख्त ने भिंडरावाले को ‘शहीद’ करार दिया था। ऑपरेशन ब्लू स्टार में भिंडरावाले की मौत हुई थी। सिख समुदाय का एक वर्ग भिंडरावाले को पावरफुल लीडर के तौर पर देखता है। इसके उलट सरकार उसे आतंकी करार देती है। भिंडरावाले को कभी कांग्रेस ने अकाली दल को कमजोर करने के लिए खड़ा किया था। लेकिन, वह कांग्रेस के हाथ से निकलकर न सिर्फ उसके बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन गया। इसी के चलते पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जान गई। आइए, यहां भिंडरावाले के उदय से अंत तक की पूरी कहानी जानते हैं।
भिंडरावाले का जन्म 2 जून 1947 में हुआ था। उसका परिवार जाट सिखों का था। भिंडरावाले के तौर पर उसकी पहचान बाद में बनी। पहले वह जरनैल सिंह बरार कहलाता था। उसके पिता जोगिंदर सिंह बरार किसान और सिख नेता थे। मां का नाम निहाल कौर था। आठ भाई-बहनों में वह सातवें नंबर का था। 6 साल की उम्र में वह स्कूल जाने लगा था। लेकिन, इसके पांच साल बाद ही उसने पढ़ाई छोड़ पिता के काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया। 19 साल की उम्र में भिंडरावाले की प्रीतम कौर से शादी हो गई। उनके दो बच्चे हुए। ईश्वर सिंह और इंदरजीत सिंह। ईश्वर का जन्म 1971 और इंदरजीत का 1975 में हुआ। भिंडरावाले की मौत के बाद प्रीतम अपने बच्चों के साथ मोगा जिले के बिलासपुर गांव में चली गई थीं। अपने दो भाइयों के साथ वह रहने लगी थीं। 2007 में जालंधर में उनका निधन हो गया था। यह पूरी कहानी शुरू होती है आजादी के बाद से। बंटवारे में पंजाब के दो टुकड़े हुए। बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में चला गया। इस दौरान खूब खून बहा। पाकिस्तान से बड़ी संख्या में सिख, हिंदू और सिंधी भारत आ गए। पंजाबियों को अपनी संस्कृति और भाषा के वजूद की चिंता सताने लगी। अंग्रेजों के समय में अकाली दल का गठन हो चुका था। यह सिखों की धार्मिक संस्था की राजनीतिक शाखा थी। 1920 में अकाली दल अस्तित्व में आया था। आजादी के बाद भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ था। तभी सिख बहुल राज्य बनाए जाने की मांग की गई थी। हालांकि, इसे खारिज कर दिया गया था। सिखों का मत था कि पंजाब के संसाधनों पर पहले पंजाबियों का अधिकार होना चाहिए। देश में बनने वाले बांध और नहरों पर उन्हें ज्यादा अधिकार मिलना चाहिए। 1956 में हिमाचल अलग राज्य घोषित हुआ था। हालांकि, पंजाब को अलग राज्य घोषित करने में 10 साल का समय लगा था। 1965 में भारत और पाकिस्तान युद्ध के बाद पंजाब और हरियाणा बने थे। इस तरह सिखों की अलग राज्य की मांग पूरी हुई थी। अकाली दल ने पंजाब गठन के लिए भाषा के आधार पर इस मांग को रखा था। इसका धार्मिक आधार नहीं था। लिहाजा, सरकार ने इस मांग को स्वीकार कर लिया था। इसके कुछ समय बाद 1970 में खालिस्तान आंदोलन की शुरुआत हुई। पंजाब से अमेरिका, ब्रिटेन और दूसरे देशों में गए कुछ प्रवासियों ने इसे शुरू किया था। इसके तहत खालिस्तान के तौर पर अलग देश की मांग ने तूल पकड़ा। करेंसी भी जारी हो गई। अकाली दल ने कभी अलग खालिस्तान की मांग नहीं की। इस संदर्भ में 1973 अहम है। उस साल आनंदपुर साहिब में एक बैठक हुई। इसमें एक प्रस्ताव पारित हुआ। इस प्रस्ताव में कुछ महत्वपूर्ण बातों का जिक्र किया गया। चंडीगढ़ को पंजाब को देने की बात कही गई। यह और बात है कि केंद्र ने चंडीगढ़ को हरियाणा और पंजाब की संयुक्त राजधानी बनाया था। हरियाणा में पंजाबी बोलने वाले कुछ गांवों को पंजाब में शामिल करना भी इसमें शामिल था। यह भी कहा गया था कि पंजाब में भूमि सुधार हों। केंद्र का दखल कम किया जाए। अखिल भारतीय गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के गठन की मांग भी की गई थी। फौज में सिखों की ज्यादा भर्ती का मसला भी उठाया गया था। मौजूदा कोटा सिस्टम खत्म करने की बात भी की गई थी। अकाली दल का मानना था कि सिख समुदाय की पहचान, वजूद और संस्कृति बचाए रखना जरूरी है। भिंडरावाले 1977 में सिखों की धर्म प्रचार की प्रमुख शाखा दमदमी टकसाल का मुखिया बना था। 1973 के प्रस्ताव को उसने दोबारा हवा दी। दमदमी टकसाल की निरंकारियों से नहीं बनती थी। दोनों के बीच टकराव सिख गुरु को लेकर है। सिखों का एक धड़ा मानता है कि गुरु गोविंद सिंह के बाद दूसरा कोई इंसान गुरु का पद ग्रहण नहीं कर सकता है। निरंकारी सिख इसे नहीं मानते हैं। 1978 में सिखों और निरंकारी सिखों के बीच इसे लेकर झड़प हुई। इसमें कई निरंकारियों की जान गई थी। इसके बाद पंजाब के हालात तेजी से बदल गए। 1977 के चुनाव में कांग्रेस को शिकस्त झेलनी पड़ी थी। केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी थी। पंजाब में कांग्रेस के हाथ से सत्ता फिसलकर अकाली दल के पास आ गई थी।
कांग्रेस ने भिंडरावाले को दी हवा
कांग्रेस को अब ऐसे किसी बड़े नेता की तलाश थी जो अकाली दल का विरोध कर सके। भिंडरावाले पर जाकर यह तलाश खत्म हुई थी। भिंडरावाले को पार्टी ने अपना रसूख बढ़ाने के लिए पूरी मदद की। इसके लिए धर्म से लेकर नशे तक को हथियार बनाया गया। भिंडरावाले ने गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी में अपने कैंडिडेट खड़े करने शुरू किए। कांग्रेस ने उन उम्मीदवारों का पूरा समर्थन किया। धीरे-धीरे वह सिखों के बीच लोकप्रिय होने लगा। कांग्रेस भिंडरावाले के हौसलों को बढ़ाने लगी थी। जबकि कुछ समय बाद ही उसे कंट्रोल करने की मांग उठने लगी थी। 1980 में जनता सरकार गिरने के बाद जब दरबारा सिंह कांग्रेस से सीएम बने तो उन्होंने भिंडरावाले पर अंकुश लगाने की मांग की थी। लेकिन, तब पार्टी इसके पक्ष में नहीं थी। इस दौर में पंजाब में भाषा विवाद गरमाया था। पंजाब केसरी के मालिक लाला जगत नारायण की हत्या कर दी गई थी। इस मामले में भिंडरावाले को गिरफ्तार किया गया था। कुछ दिन बाद भिंडरावाले रिहा हो गया। लेकिन, इस घटना ने उसका कद बहुत ज्यादा बढ़ा दिया था। भिंडरावाले के समर्थक तेजी से बढ़ने लगे थे। चीजें और तब बदलीं जब 1982 में भिंडरावाले और अकाली साथ आ गए। दोनों की साथ काम करने की सहमति बनने के बाद धर्मयुद्ध मोर्चा की शुरुआत हुई। दोबारा 1973 के आनंदपुर साहब प्रस्तावों की मांग ने तूल पकड़ा। अब भिंडरावाले कांग्रेस के हाथों से निकल चुका था। राज्य में कांग्रेस की सत्ता थी। उसने आंदोलन को रोकने की कोशिश की। इसमें कई लोगों की जान गई। भिंडरावाले लगातार अक्रामक होता जा रहा था। लोग उसे संत जी कहने लगे थे। सिखों का एक वर्ग उसे भगवान बना रहा था। इसी बीच आईपीएस अधिकारी एएस अटवाल की स्वर्ण मंदिर की सीढ़ियों पर हत्या कर दी गई थी। अटवाल ने 1983 में धर्मयुद्ध मोर्चा के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की थी। फिर उसी साल अक्टूबर में एक बस में सवार 6 हिंदुओं की हत्या कर दी गई। इससे हालात बिगड़ गए। राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। अब तक भिंडरावाले अपना वर्चस्व कायम कर चुका था। उसने हरमंदर साहब परिसर में हथियार जुटाने शुरू कर दिए। 15 दिसंबर 1983 में भिंडरावाले ने समर्थकों के साथ मिलकर अकाल तख्त पर कब्जा जाम लिया था।
ऑपरेशन ब्लू स्टार की नींव पड़ी
भिंडरावाले ताकत के नशे में इतना चूर हो गया था कि उसने कांग्रेस सरकार के बातचीत के प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया था। यहीं से ऑपरेशन ब्लू स्टार की नींव बननी शुरू हुई। 1 जून 1984 में पंजाब में कर्फ्यू लगा दिया गया। भिंडरावाले के समर्थक हथियार चलाने में प्रशिक्षित थे। 5 जून को सेना ने ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू किया। उन्हें सख्त आदेश मिले थे कि ऑपरेशन में हरमंदर साहब को नुकसान नहीं होना चाहिए। सेना को कतई अंदाजा नहीं था कि भिंडरावाले इतनी तगड़ी तैयारी के साथ अंदर बैठा है। भिंडरावाले को निकालने लिए मजबूरन सेना को अकाल तख्त के ऊपर गोले दागने पड़े। इसी ऑपरेशन में भिंडरावाले की जान गई। ऑपरेशन में सेना के 83 जवान वीरगति को प्राप्त हुए थे। ऑपरेशन ब्लू स्टार (Operation Blue Star) का जिक्र होते ही खालिस्तानी आतंकी जरनैल सिंह भिंडरावाले (Jarnail Singh Bhindranwale) का नाम अपने आप आ जाता है। इस ऑपरेशन में मौत से पहले की उसकी आखिरी तस्वीर की अपनी ही कहानी है। इसे खींचा था जाने-माने फोटोग्राफर रघु राय (Raghu Rai) ने। तस्वीर में भिंडरावाले का चेहरा सुलगता हुआ दिखता है। आंखें बहुत कुछ कहने को उतावली, गुस्से, डर और तनाव का भाव। जिस वक्त यह तस्वीर ली गई थी जरनैल सिंह स्वर्ण मंदिर के एक कमरे में चारपाई पर अकेला बैठा था। इस कमरे में बल्ब जल रहा था। रघु राय को देखते ही वह चीख उठा था। उसने गुस्से से पूछा था- तू क्यों आया है। मशहूर फोटोग्राफर का भिंडरावाले से पहले भी मिलना-जुलना था। रघु ने तब कहा था कि वह तो आते ही रहते हैं। वह उनसे मिलने ही आए हैं।
रघु राय ने द लल्लनटॉप के साथ इंटरव्यू में भिंडरावाले की उस फोटो के बारे में बताया है जो उसकी मौत से पहले खींची गई थी। उन्होंने यह भी बताया कि भिंडरावाले की मौत से पहले स्वर्ण मंदिर का माहौल कैसा था। उन्होंने ऑपरेशन ब्लू स्टार से ठीक एक दिन पहले भिंडरावाले की खींची गई तस्वीर के बारे में विस्तार से बताया है। रघु राय ने कहा कि वह भिंडरावाले को पाजी कहा करते थे। उनका अक्सर स्वर्ण मंदिर आना-जाना होता था। भिंडरावाले हरमिंदर साहिब के कॉम्प्लेक्स में पहले चौथे फ्लोर पर बैठता था। उसके साथ कई बंदूकधारी रहते थे। वह बहुत कड़क आवाज में बोलता था। दूसरे लोग उसे संत जी बुलाते थे। आज भी उसकी तस्वीरे बिकती हैं जिसमें उसके पीछे प्रभामंडल दिखता है। उनके साथ रहने वाले एक सरदार ने पाजी कहने पर रघु राय से आपत्ति जताई थी। उसने कहा था कि वो हमारे संत जी हैं। भाई नहीं। अच्छा होगा कि रघु भी उन्हें संत जी ही कहकर बुलाया करें। रघु ने इन शख्स से कह दिया था कि आगे से वह ऐसा ही करेंगे। हालांकि, वह भिंंडरावाले को आगे भी पाजी ही कहते रहे। ऑपरेशन ब्लू स्टार से पहले तमाम जर्नलिस्ट को एक जगह पैक कर दिया गया था। किसी को अंदर आने की अनुमति नहीं थी। खालिस्तानी आतंकी अकाल तख्त में जाकर छुप गया था। पहले वह जहां पर रहता था, वहां तक पहुंचना आसान था। यही कारण था कि भिंडरावाले ने यह तरीका अपनाया था। रघु राय बड़ी जुगाड़ से वहां तक पहुंच पाए थे। इसके लिए उन्होंने पुराने कॉन्टैक्ट्स का इस्तेमाल किया था।
रघु राय ने बताया कि अकाल तख्त में तीसरी मंजिल पर सिर्फ एक बल्ब जल रहा था। वो अकेला चारपाई पर बैठा था। भिंडरावाले ने रघु राय से चीखते हुआ पूछा – तू क्यों आया है यहां। इस पर रघु बोले – अरे पाजी मैं तो आपसे लंबे समय से मिलता आया हूं। हम दोनों की तो दोस्ती है। आप मुझसे पूछ रहे हो कि मैं क्यों आया हूं। जवाब में भिंडरावाले ने रघु से मिलने आने का मकसद पूछा। रघु ने बताया कि वह सिर्फ उनकी कुछ तस्वीरें लेने आए हैं। कमरे में सिर्फ बल्ब की लाइट थी। रघु ने भिंडरावाले का पोट्रेट बनाया। उन्होंने कहा कि तस्वीर में देखा जा सकता है कि उसकी आखों में गुस्सा भी था और डर भी। इसके बाद भिंडरावाले ने रघु को वहां से तुरंत चले जाने को कहा। रघु के मुताबिक, उसे एहसास हो गया था कि क्या होने वाला है। वो खौफ भिंडरावाले की आंखों में दिख रहा था। ऑपरेशन ब्लू स्टार में अकाल तख्त को बुरी तरह से नुकसान हुआ था। उन्होंने चुपके से इसकी भी बहुत सी तस्वीरें खींची थी।
मौत से कुछ समय पहले भिंडरावाले ने जिन पत्रकारों से बात की थी उनमें रघु राय के अलावा टाइम्स ऑफ इंडिया के सुभाष किरपेकर और बीबीसी के मार्क टली भी थे। सुभाष किरपेकर इकलौते पत्रकार थे जो स्वर्ण मंदिर को घेर लिए जाने के बाद भिंडरावाले से मिले थे। जरनैल सिंह भिंडरावाले के आसपास एक सफेद दाढ़ी वाले शख्स को देखा जाता था। यह थे मेजर जनरल शाबेग सिंह। शाबेग ने ही स्वर्ण मंदिर के अंदर भारतीय सेना से मोर्चा लेने के लिए चक्रव्यूह तैयार किया था।
करीब 200 समर्थकों के साथ शाबेग सिंह ने मरने से पहले तक सेना का सामना किया। भारतीय सेना में अपने करियर के दौरान मेजर जनरल शाबेग ने देश की ओर से हर जंग में हिस्सा लिया। 1947 में पाकिस्तान का हमला, 1962 में चीन से युद्ध के साथ ही 1965 और 1971 की जंग में भी वह देश के लिए लड़े थे। 1971 के युद्ध में भारतीय सेनाध्यक्ष सैम मानेक शॉ ने उन्हें बांग्लादेश की मुक्ति बाहिनी को ट्रेंड करने की जिम्मेदारी सौंपी थी। बांग्लादेश युद्ध में शाबेग को परम विशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित किया गया था। बाद में उनकी बरेली में तैनाती हुई थी। इसी दौरान एक वित्तीय गड़बड़ी के सिलसिले में उन्होंने जांच की कोशिश की। इसको लेकर रिटायरमेंट से सिर्फ एक दिन पहले शाबेग को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। ऑपरेशन ब्लू स्टार पर किताब ‘अमृतसर मिसेज गांधीज लास्ट बैटल’ लिखने वाले पत्रकार सतीश जैकब ने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘इस कदम के बाद शाबेग सिंह सरकार के खिलाफ हो गए। अदालत में उनके खिलाफ आरोप गलत पाए गए लेकिन अब शाबेग का मन उचट चुका था। इसी दौरान शाबेग भिंडरावाले से प्रभावित होकर उनके करीब आ गए।’ जनरल वीके सिंह ने अपनी आत्मकथा ‘करेज ऐंड कनविक्शन’ में लिखा है कि मेजर जनरल शाबेग सिंह ने सभी हथियारों को कुछ इंच की ऊंचाई पर रखा था। इससे जवानों के रेंगकर आगे बढ़ने का विकल्प खत्म हो गया था। क्योंकि अगर जवान रेंगते हुए स्वर्ण मंदिर में दाखिल होते तो उनके सिर में गोली लगती। बीबीसी को दिए इंटरव्यू में शाबेग के पुत्र प्रबपाल सिंह कहते हैं कि उनके पिता ने तहखाने और मैनहोल में तैनात लड़ाकों से भारतीय सैनिकों के पैर को निशाना बनाने को कहा। इस वजह से ज्यादातर भारतीय जवानों के पैर में गोलियां लगीं। ऑपरेशन ब्लू स्टार को लीड करने वाले लेफ्टिनेंट जनरल कुलदीप सिंह बराड़ ने अपनी किताब ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार द ट्रू स्टोरी’ में लिखा है कि जनरल शाबेग सिंह का शव स्वर्ण मंदिर के एक तहखाने में मिला था। मरने के बाद भी शाबेग ने अपने हाथ में कारबाइन पकड़ी हुई थी। वहीं उनका वॉकी-टॉकी शव के पास पड़ा था। ऑपरेशन ब्लू स्टार क्यों नाम रखा गया एक यह सवाल भी जेहन में उठता है। ब्लू स्टार- यानी नीला आसमान और तारे। दरअसल इस ऑपरेशन को आधी रात में अंजाम दिए जाने की प्लानिंग हुई थी। एक ऐसा समय जब भिंडरावाले और उसके समर्थक किसी कार्रवाई की सबसे कम उम्मीद करें। इसी वजह से भारतीय सेना के ऐक्शन को ऑपरेशन ब्लू स्टार नाम दिया गया था। ऑपरेशन से पहले उस वक्त के डायरेक्टर जनरल सिक्योरिटी रामेश्वर नाथ काव अप्रैल 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले थे। दुनिया के बेस्ट जासूसों में से एक काव ने 60 के दशक में भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ (रिसर्च ऐंड एनालिसिस विंग) की स्थापना की थी। काव ने इंदिरा को ऑपरेशन सनडाउन का भी सुझाव दिया था। इसे समझाते हुए उन्होंने कहा था कि गोल्डेन टेंपल के पास गुरु नानक निवास में कमांडो घुसेंगे और जरनैल सिंह भिंडरावाले को अगवा कर लेंगे। लेकिन इंदिरा ने ऑपरेशन सनडाउन को खारिज करते हुए ऑपरेशन ब्लू स्टार को हरी झंडी दी थी। ऑपरेशन ब्लू स्टार के हीरो के तौर पर लेफ्टिनेंट जनरल कुलदीप सिंह बराड़ की गिनती होती है। इस ऐतिहासिक ऑपरेशन को बराड़ ने ही लीड किया था। जब उन्हें ऑपरेशन ब्लू स्टार का नेतृत्व करने के बारे में फोन पर बताया गया, उस वक्त जनरल बराड़ मेरठ की 9 इंफैंट्री डिवीजन को कमांड कर रहे थे। 30 मई 1984 की शाम को दिल्ली से उनके पास फोन आया और कहा गया कि ऑपरेशन का नेतृत्व करना है। इसके बाद एक जून को वह चंडी मंदिर स्थित वेस्टर्न कमांड के मुख्यालय पहुंच गए। इसी शाम वह छुट्टियां मनाने के लिए मनीला जाने वाले थे। सिख समुदाय से ही आने वाले बराड़ ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में कहा था जब एक बार हम वर्दी पहनकर देश की रक्षा की कसम खा लेते हैं तो यह नहीं सोचते कि सिख हैं या हिंदू। जनरल बराड़ ने ब्लू स्टार पर एक किताब भी लिखी है, जिसका नाम है- ऑपरेशन ब्लू स्टार द ट्रू स्टोरी। इस आत्मकथा में उन्होंने ऑपरेशन के तमाम पहलुओं का जिक्र किया है। इस किताब में एक जगह बराड़ लिखते हैं, ‘सिखों ने देश पर बहुत सारे उपकार किए हैं। 1965 और 1971 का पाकिस्तान युद्ध खास तौर से। अगर इस जाति के साथ सावधानीपूर्वक व्यवहार किया जाए तो यह हमारे देश की हमेशा सबसे बड़ी ताकत बनी रहेगी।’ बराड़ ने एक इंटरव्यू में कहा था कि जब खबर मिली कि भिंडरावाले को मार गिराया गया तो हम 6 जून को सुबह करीब 10 बजे स्वर्ण मंदिर के अंदर घुसे।
ऑपरेशन से पहले 2 जून 1984 को भारतीय सेना ने अंतरराष्ट्रीय सीमा सील कर दी थी। इसके साथ ही 3 जून को पूरे पंजाब में कर्फ्यू लगा दिया गया था। पांच जून 1984 की रात साढ़े नौ बजे हरमंदिर साहिब के अंदर भारतीय सेना ने प्रवेश किया। छह जून की सुबह तक ये पूरा ऑपरेशन चला। ऑपरेशन के एक महीने बाद जुलाई 1984 में इंदिरा सरकार ने एक श्वेतपत्र जारी किया। इसमें कहा गया कि ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान सेना के 4 अफसरों समेत 83 जवानों की मौत हुई। साथ ही 273 सैनिक और 12 अफसर स्वर्ण मंदिर के अंदर कार्रवाई के दौरान जख्मी हुए थे। इसके अलावा 492 अन्य लोगों की ऑपरेशन के दौरान मौत हुई थी। इनमें जरनैल सिंह भिंडरावाले, मेजर जनरल शाबेग सिंह और उनके समर्थक शामिल थे। 6 जून, 1984 को सुबह 6 बजे का वक्त हो रहा था। तत्कालीन रक्षा राज्यमंत्री केपी सिंहदेव ने पीएम इंदिरा गांधी के करीबी और सलाहकार आरके धवन को फोन लगाया। सिंहदेव चाहते थे कि तुरंत इंदिरा गांधी तक ऑपरेशन के सफल होने की सूचना पहुंच जाए। खबर मिलते ही इंदिरा गांधी का पहला रिऐक्शन था, ‘हे भगवान, ये क्या हो गया? इन लोगों ने तो मुझे बताया था कि इतनी मौतें नहीं होंगी।’ 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। इसके लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार को ही जिम्मेदार माना जाता है। 31 मई 1984 की शाम. मेरठ में नाइन इंफ़ेंट्री डिवीजन के कमांडर मेजर जनरल कुलदीप बुलबुल बराड़ अपनी पत्नी के साथ दिल्ली जाने की तैयारी कर रहे थे.
अगले दिन उन्हें मनीला के लिए उड़ान भरनी थी, जहाँ वो छुट्टियाँ मनाने जा रहे थे. ये तब की बात है जब पंजाब अलगाववाद की आग में झुलस रहा था.
गुरुद्वारों में पंजाब को भारत से अलग किए जाने के लिए यानी एक अलग मुल्क ख़ालिस्तान बनाने की तकरीरें की जा रही थीं.
ये भी कहा जा रहा था कि इसके लिए भारत के साथ सशस्त्र संघर्ष करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए. पंजाब में जारी ये गतिविधियां दिल्ली में बैठे अधिकारियों के लिए चिंता का सबब बनी हुई थीं. ऐसे में सत्ता के शीर्ष शिखर से एक ऐतिहासिक फैसला लिया गया. ये फैसला था ऑपरेशन ब्लू स्टार को अंजाम देने का. और मेजर जनरल बराड़ को इसकी ज़िम्मेदारी संभालनी थी. मेजर जनरल कुलदीप बराड़ याद करते हैं, “शाम को मेरे पास फ़ोन आया कि अगले दिन पहली तारीख की सुबह मुझे चंडी मंदिर पहुंचना है एक मीटिंग के लिए.”
“पहली तारीख की शाम ही हमें मनीला निकलना था. हमारी टिकटें बुक हो चुकी थीं. हमने अपने ट्रैवलर्स चेक ले लिए थे और हम दिल्ली जा रहे थे जहाज़ पकड़ने के लिए.”
“मैं मेरठ से दिल्ली बाई रोड गया. वहाँ से जहाज़ पकड़ कर चंडीगढ़ और सीधे पश्चिम कमान के मुख्यालय पहुंचा.” “वहाँ मुझे ख़बर मिली कि मुझे ऑपरेशन ब्लू स्टार कमांड करना है और जल्द से जल्द अमृतसर पहुंचना है क्योंकि हालात बहुत ख़राब हो गए हैं.”
“स्वर्ण मंदिर पर भिंडरावाले ने पूरा कब्ज़ा कर लिया है और पंजाब में कोई कानून और व्यवस्था नहीं रही है.”
“मुझसे कहा गया कि इसे जल्दी से जल्दी ठीक करना है वर्ना पंजाब हमारे हाथ से निकल जाएगा.”
“मेरी छुट्टी रद्द हो गई और मैं तुरंत हवाई जहाज़ पर बैठ कर अमृतसर पहुँचा.” भिंडरावाले को कांग्रेसियों ने ही बढ़ावा दिया. उनको बढ़ावा देने के पीछे मक़सद ये था कि अकालियों के सामने सिखों की मांग उठाने वाले किसी ऐसे शख्स को खड़ा किया जाए जो उनको मिलने वाले समर्थन में सेंध लगा सके.
भिंडरावाले विवादास्पद मुद्दों पर भड़काऊ भाषण देने लगे और धीरे-धीरे उन्होंने केंद्र सरकार को भी निशाना बनाना शुरू कर दिया.
पंजाब में हिंसा की घटनाएं बढ़ने लगीं.
साल 1982 में भिंडरावाले चौक गुरुद्वारा छोड़ पहले स्वर्ण मंदिर में गुरु नानक निवास और उसके कुछ महीनों बाद अकाल तख़्त से अपने विचार व्यक्त करने लगे. वरिष्ठ पत्रकार और बीबीसी के लिए काम कर चुके पत्रकार सतीश जैकब को भी कई बार भिंडरावाले से मिलने का मौका मिला.
जैकब कहते हैं, “मैं जब भी वहाँ जाता था, भिंडरावाले के रक्षक दूर से कहते थे आओजी आओजी बीबीजी आ गए. कभी उन्होंने बीबीसी नहीं कहा. कहते थे तुसी अंदर जाओ.”
“संत जी आपका इंतज़ार कर रहे हैं. वो मुझसे बहुत आराम से मिलते थे. मुझे अब भी याद है जब मैंने मार्क टली को उनसे मिलवाया तो उन्होंने उनसे पूछा कि तुम्हारा क्या धर्म है तो उन्होंने कहा कि मैं ईसाई हूँ.”
“इस पर भिंडरावाले बोले तो आप जीज़स क्राइस्ट को मानते हैं. मार्क ने कहा, ‘हाँ’. इस पर भिंडरावाले बोले लेकिन जीज़स क्राइस्ट की तो दाढ़ी थी. तुम्हारी दाढ़ी क्यों नही है.”
“मार्क बोले, ‘ऐसा ही ठीक है’. इस पर भिंडरावाले का कहना था तुम्हें पता है कि बिना दाढ़ी के तुम लड़की जैसे लगते हो. मार्क ने ये बात हंस कर टाल दी.” वे कहते हैं, “भिंडरावाले से एक बार मेरी अकेले में लंबी चौड़ी बात हुई. हम दोनों स्वर्ण मंदिर की छत पर बैठे हुए थे, जहाँ कोई नहीं जाता था. बंदर ही बंदर घूम रहे थे.”
“मैंने बातों ही बातों में उनसे पूछा कि जो कुछ आप कर रहे हैं आपको लगता है कि आप के ख़िलाफ़ कुछ एक्शन होगा. उन्होंने कहा क्या ख़ाक एक्शन होगा.”
“उन्होंने मुझे छत से इशारा करके दिखाया कि सामने खेत हैं. सात आठ किलोमीटर के बाद भारत-पाकिस्तान सीमा है.”
“हम पीछे से निकल कर सीमा पार चले जाएंगे और वहाँ से छापामार युद्ध करेंगे. मुझे ये हैरानी थी कि ये शख्स मुझे ये सब कुछ बता रहा है और मुझ पर विश्वास कर रहा है.”
“उसने मुझसे ये भी नहीं कहा कि तुम इसे छापोगे नहीं.”
4 जून 1984 को भिंडरावाले के लोगों की पोज़ीशन का जायज़ा लेने के लिए एक अधिकारी को सादे कपड़ों में स्वर्ण मंदिर के अंदर भेजा गया.
5 जून की सुबह जनरल बराड़ ने ऑपरेशन में भाग लेने वाले सैनिकों को उनके ऑपरेशन के बारे में ब्रीफ़ किया. जनरल बराड़ ने बीबीसी को बताया, “पाँच तारीख की सुबह साढ़े चार बजे मैं हर बटालियन के पास गया और उनके जवानों से करीब आधे घंटे बात की.”
“मैंने उनसे कहा कि स्वर्ण मंदिर के अंदर जाते हुए हमें ये नहीं सोचना है कि हम किसी पवित्र जगह पर जा कर उसे बर्बाद करने जा रहे हैं, बल्कि हमें ये सोचना चाहिए कि हम उसकी सफ़ाई करने जा रहे हैं. जितनी कैजुएलटी कम हो उतना अच्छा है.”
“मैंने उनसे ये भी कहा कि अगर आप में से कोई अंदर नहीं जाना चाहता तो कोई बात नहीं. मैं आपके कमाडिंग ऑफ़िसर से कहूँगा कि आपको अंदर जाने की ज़रूरत नहीं है और आपके ख़िलाफ़ कोई एक्शन नहीं लिया जाएगा.”
“मैं तीन बटालियंस में गया. कोई नहीं खड़ा हुआ. चौथी बटालियन में एक सिख ऑफ़िसर खड़ा हो गया. मैंने कहा कोई बात नहीं अगर आपकी फ़ीलिंग्स इतनी स्ट्रांग है तो आपको अंदर जाने की ज़रूरत नहीं.”
“उसने कहा आप मुझे ग़लत समझ रहे हैं. मैं हूँ सेकेंड लेफ़्टिनेंट रैना. मैं अंदर जाना चाहता हूँ और सबसे आगे जाना चाहता हूँ. ताकि मैं अकाल तख़्त में सबसे पहले पहुँच कर भिंडरावाले को पकड़ सकूँ.” मेजर जनरल कुलदीप बराड़ बताते हैं कि उन्हें अंदाजा नहीं था कि अलगाववादियों के पास रॉकेट लॉन्चर थे.
बराड़ ने बताया, “मैंने उनके कमांडिंग ऑफ़िसर से कहा कि इनकी प्लाटून सबसे पहले सबसे आगे अंदर जाएगी. उनकी प्लाटून सबसे पहले अंदर गई, लेकिन उनको मशीन गन के इतने फ़ायर लगे कि उनकी दोनों टांगें टूट गईं. ख़ून बह रहा था. उनका कमांडिंग ऑफ़िसर कह रहा था कि मैं इन्हें रोकने की कोशिश कर रहा हूँ लेकिन वो रुक नहीं रहे हैं. वो अकाल तख़्त की तरफ़ रेंगते हुए बढ़ रहे हैं. मैंने आदेश दिया कि उन्हें ज़बरदस्ती उठा कर एंबुलेंस में लादा जाए. बाद में उनके दोनों पैर काटे गए. उनकी बहादुरी के लिए बाद में मैंने उन्हें अशोक चक्र दिलवाया.” ऑपरेशन का नेतृत्व कर रहे जनरल सुंदरजी, जनरल दयाल और जनरल बराड़ की रणनीति थी कि इस पूरी मुहिम को रात के अंधेरे में अंजाम दिया जाए. दस बजे के आसपास सामने से हमला बोला गया. काली वर्दी पहने पहली बटालियन और पैराशूट रेजिमेंट के कमांडोज़ को निर्देश दिया गया कि वो परिक्रमा की तरफ़ बढ़ें, दाहिने मुड़ें और जितनी जल्दी संभव हो अकाल तख़्त की ओर कदम बढ़ाएं. लेकिन जैसे ही कमांडो आगे बढ़े उन पर दोनों तरफ़ से ऑटोमैटिक हथियारों से ज़बरदस्त गोलीबारी की गई. कुछ ही कमांडो इस जवाबी हमले में बच पाए.
उनकी मदद करने आए लेफ़्टिनेंट कर्नल इसरार रहीम खाँ के नेतृत्व में दसवीं बटालियन के गार्ड्स ने सीढ़ियों के दोनों तरफ मशीन गन ठिकानों को निष्क्रिय किया, लेकिन उनके ऊपर सरोवर की दूसरी ओर से ज़बरदस्त गोलीबारी होने लगी.
कर्नल इसरार खाँ ने सरोवर के उस पार भवन पर गोली चलाने की अनुमति माँगी, लेकिन उसे अस्वीकार कर दिया गया. कहने का मतलब ये कि सेना को जिस विरोध का सामना करना पड़ा उसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी. बराड़ कहते हैं, “वो तो पहले पैंतालिस मिनट में पता चल गया कि इनकी प्लानिंग, इनके हथियार और इनकी किलाबंदी इतनी मज़बूत है कि इनसे पार पाना आसान नहीं होगा. हम चाहते थे कि हमारे कमांडो अकाल तख़्त के अंदर स्टन ग्रेनेड फेंकें. स्टन ग्रेनेड की जो गैस होती है उससे आदमी मरता नहीं है. उसको सिर दर्द हो जाता है. उसकी आँखों में पानी आ जाता है. वो ठीक से देख नहीं सकता है और इस बीच हमारे जवान अंदर चले जाएं. लेकिन इन ग्रेनेडों को अंदर फेंकने का कोई रास्ता नहीं था. हर खिड़की और हर दरवाज़े पर सैंड बैग लगे हुए थे. ग्रेनेड दीवारों से टकरा कर परिक्रमा पर वापस आ रहे थे और हमारे जवानों पर उनका असर होने लगा था.”
सिर्फ़ उत्तरी और पश्चिमी छोर से ही सैनिकों पर फ़ायरिंग नहीं हो रही थी बल्कि अलगाववादी ज़मीन के नीचे मेन होल से निकल कर मशीन गन से फ़ायर कर अंदर ही गायब हो जा रहे थे. जनरल शाहबेग सिंह ने इन लोगों को घुटने के आसपास फ़ायर करने की ट्रेनिंग दी थी क्योंकि उनका अंदाज़ा था कि भारतीय सैनिक रेंगते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ेंगे, लेकिन कमांडोज़ बाक़ायदा चल कर आगे बढ़ रहे थे.
यही कारण है कि ज़्यादातर सैनिकों को पैरों में गोली लगी. जब सैनिकों का बढ़ना रुक गया तो जनरल बराड़ ने आर्मर्ड पर्सनल कैरियर के इस्तेमाल का फ़ैसला किया, लेकिन जैसे ही एपीसी अकाल तख़्त की ओर बढ़ा, उसे चीन निर्मित रॉकेट लांचर से उड़ा दिया गया. जनरल बुलबुल बराड़ याद करते हैं, “एपीसी में अंदर बैठे कमांडोज़ को प्रोटेक्शन मिल जाता है. हमारी कोशिश थी कि हम अपने जवानों को अकाल तख़्त के नज़दीक से नज़दीक पहुँचा सकें, लेकिन हमें पता नहीं था कि उनके पास रॉकेट लॉन्चर्स हैं. उन्होंने रॉकेट लॉन्चर फ़ायर कर एपीसी को उड़ा दिया.”
जिस तरह से चारों तरफ़ चल रही गोलियों से भारतीय जवान धराशायी हो रहे थे, जनरल बराड़ को मजबूर होकर टैंकों की मांग करनी पड़ी.जनरल बराड़ से पूछा कि क्या टैंकों का इस्तेमाल पहले से आपकी योजना में था? बराड़ का जवाब था, “बिल्कुल नहीं. टैंकों को तब बुलाया गया जब हमने देखा कि हम अकाल तख़्त के नज़दीक तक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं. हमें डर था कि सुबह होते ही हज़ारों लोग आ जाएंगे चारों तरफ़ से फ़ौज को घेर लेंगे. टैंकों का इस्तेमाल हम इसलिए करना चाहते थे कि उनके ज़िनॉन बल्ब या हेलोजन बल्ब बहुत शक्तिशाली बल्ब होते हैं. हम उनके ज़रिए उनकी आंखों को चौंधियाना चाहते थे ताकि वो कुछ क्षणों के लिए कुछ न देख पाएं और हम उसका फ़ायदा उठा कर उन पर हमला बोल दें.”
जब जनरल बराड़ से पूछा गया कि क्या टैंकों का इस्तेमाल पहले से आपकी योजना में था? बराड़ का जवाब था, “बिल्कुल नहीं. टैंकों को तब बुलाया गया जब हमने देखा कि हम अकाल तख़्त के नज़दीक तक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं. हमें डर था कि सुबह होते ही हज़ारों लोग आ जाएंगे चारों तरफ़ से फ़ौज को घेर लेंगे. टैंकों का इस्तेमाल हम इसलिए करना चाहते थे कि उनके ज़िनॉन बल्ब या हेलोजन बल्ब बहुत शक्तिशाली बल्ब होते हैं. हम उनके ज़रिए उनकी आंखों को चौंधियाना चाहते थे ताकि वो कुछ क्षणों के लिए कुछ न देख पाएं और हम उसका फ़ायदा उठा कर उन पर हमला बोल दें.”
वे कहते हैं, “लेकिन ये बल्ब ज़्यादा से ज़्यादा बीस, तीस या चालीस सैकेंड रहते हैं और फिर फ़्यूज़ हो जाते हैं. बल्ब फ़्यूज़ होने के बाद हम टैंक को वापस ले गए. फिर दूसरा टैंक लाए, लेकिन जब कुछ भी सफल नहीं हो पाया और सुबह होने लगी और अकाल तख़्त में मौजूद लोगों ने हार नहीं मानी तो हुक़्म दिया गया कि टैंक के सेकेंड्री आर्मामेंट से अकाल तख़्त के ऊपर वाले हिस्से पर फ़ायर किया जाए, ताकि ऊपर से गिरने वाले पत्थरों से लोग डर जाएं और बाहर निकल आएं.” इसके बाद तो अकाल तख़्त के लक्ष्य को किसी और सैनिक लक्ष्य की तरह ही माना गया. बाद में जब रिटायर्ड जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने स्वर्ण मंदिर का दौरा किया तो उन्होंने पाया कि भारतीय टैंकों ने अकाल तख़्त पर कम से कम 80 गोले बरसाए थे.
मौत की पुष्टि
जनरल बराड़ से पूछे जाने पर “कि आपको कब अंदाज़ा हुआ कि जरनैल सिंह भिंडरावाले और जनरल शाहबेग सिंह मारे गए”
बराड़ ने जवाब दिया, “करीब तीस चालीस लोगों ने दौड़ लगाई बाहर निकलने के लिए. हमें लगा कि लगता है ऐसी कुछ बात हो गई है और फिर फ़ायरिंग भी बंद हो गई. फिर हमने अपने जवानों से कहा कि अंदर जा कर तलाशी लो. तब जा कर उनकी मौत का पता चला, लेकिन अगले दिन कहानियाँ शुरू हो गईं कि वो रात को बच कर पाकिस्तान पहुँच गए. पाकिस्तानी टीवी अनाउंस कर रहा है कि भिंडरावाले उनके पास हैं और 30 जून को वो उन्हें टीवी पर दिखाएंगे.” वे कहते हैं, “मेरे पास सूचना और प्रसारण मंत्री एचकेएल भगत और विदेश सचिव रसगोत्रा का फ़ोन आया कि आप तो बोल रहे हैं कि वो मर चुके हैं जबकि पाकिस्तान कह रहा है कि वो ज़िंदा हैं. मैंने कहा उनकी पहचान हो गई है. उनका शव उनके परिवार को दे दिया गया है और उनके अनुयायियों ने उनके पैर छुए हैं. उनकी मौत हो गई है. अब पाकिस्तान जो चाहे वो बोलता रहे उनके बारे में.”
इस पूरे ऑपरेशन में भारतीय सेना के 83 सैनिक मारे गए और 248 अन्य सैनिक घायल हुए. इसके अलावा 492 अन्य लोगों की मौत की पुष्टि हुई और 1,592 लोगों को हिरासत में लिया गया.
इस घटना से भारत क्या पूरे विश्व में सिख समुदाय की भावनाएं आहत हुईं. ये भारतीय सेना की सैनिक जीत ज़रूर थी, लेकिन इसे बहुत बड़ी राजनीतिक हार माना गया.
इसकी टाइमिंग, रणनीति और क्रियान्वयन पर कई सवाल उठाए गए और अंतत: इंदिरा गाँधी को इसकी क़ीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी.
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